Saturday, October 1, 2022

जब तक जीवन, तब तक संघर्ष। (1-Oct-2022)


हा जीवन , तुम संघर्ष;
मुझ दीन की व्यथा का व्यंग बनाते तुम ,
मृत्यु शैय्या पर स्वप्न दिखाते तुम ,
नित्य हृदय छेदन , नित्य चरित्र ह्रास,
जब तक जीवन, तब तक संघर्ष।


वेदना रक्त में मिश्रित,
शृंखलाबद्ध निशदिन व्याकुलता अथाह,
जल से रिक्त, शून्यता से छलकता संतोषकूप ;
अनार्य हर भविष्य का कल, कचोटता
जब तक जीवन, तब तक संघर्ष।


छोटे नयन , स्वपन विशाल देखते,
जीवनता का क्या ही अदेंशा तुम्हे,
कुछ प्राप्त होता भी है, कुछ नहीं भी ;
अंत में सबही अंतहीन , अर्थहीन ,
जब तक जीवन, तब तक संघर्ष।

Saturday, January 8, 2022

मेरे नास्तिकवाद में छुपा मेरा धर्म (08 Jan 2022)

जीवन भर मेरी स्वयं की मान्यताओं को लेकर मेरा स्वयं से ही संघर्ष चला है।  मुझे ये कहने में कोई शर्म नहीं की समय के साथ मेरे आदर्श , मान्यताये बदलती रही हैं।  ये बिलकुल संभव है की १० साल पुराना मैं , अगर आज के मैं को जानूं तो अपने आज के मैं का धुर आलोचक हो जाऊं।  और आज का मैं , अपने १५ साल पुराने मैं को बचकाना समझूँ।  

ये बर्ताव मेरा ईश्वर, और धर्म  के प्रति भी रहा है।  करीब ३ वर्ष पूर्व U. G. Krishnamurti के जीवन में आने के एक दिन पूर्व तक मैं ईश्वर ,दर्शन , अस्तित्व , धर्म के बारे में अपनी राय लगातार बदलता रहा हूँ।  तबसे वर्तमान तक मेरे विचार शून्यवादी (nihilistic)  रहे हैं , अर्थात कुछ भी होना , न होना , सफलता , असफलता , बदलाव, स्थिरता , जन्म , मृत्यु सब व्यर्थ जान पड़ता है.

शून्यवाद आम लोगों को कुछ ज्यादा जटिल संकल्पना जान पड़ सकती है, अतः ,हालंकि सही मूल्याङ्कन है तो नहीं, किन्तु आप मुझे नास्तिक समझ सकते है , जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानता , अध्यात्मिकता को नहीं  मानता , कर्म नहीं मानता, पुनर्जन्म नहीं मानता, मृत्यु के बाद का वर्णन देने वाले किसी भी  तरह के साहित्य को मनगणंत कल्पना के अलावा कुछ नहीं मानता।  स्पष्ट है की मेरा यही बोध विश्व में पाये जाने वाले कुल ४००० + धर्मो के प्रति भी रहा है। 

धर्मो के प्रति मेरा केवल यही आकलन रहा है की , वैसे तो किसी भी धर्म में आस्था रखना एक भ्रम ही है , किन्तु मनुष्य को अगर सुचारु जीवन चलाने के लिये अगर किसी धर्म की जरूरत हो ही हो , तो मैं विश्व में इस्लाम जैसे विध्वंसकारी धर्म की जगह , जैन जैसे किसी सच् में  "शांतिप्रिय" धर्म को देखना चाहूंगा। हालांकि उनकी तरह कर्म, मोक्ष , पुनर्जन्म , ब्रह्मचर्य में मेरी कोई रूचि नहीं है, जैन धर्म का चुनाव केवल उनके शाकाहार को लेके उनके विचारो की वजह से कर रहा हूँ। 

सोच के देखिये, अगर सब कुछ ईश्वर ने बनाया है तो, कोई भी ईश्वर अपनी एक कृति को अपनी दूसरी कृति को मारकर  खा जाने का आदेश कैसे दे सकता है , बिना कारण क्रूरता , और  हत्या के लिए प्रेरित करना किसी भी ईश्वर का गुण हो ही नहीं सकता।  अतः हर वो धार्मिक किताब शत प्रतिशत झूठ का पुलिंदा है जो अपने मानने वाले लोगों को जीव हत्या सिखाती है. और जो जो दुनिया का धर्म मानव हत्या सिखाता है , हर वो धर्म तो कूड़ेदान में होना ही चाहिए। 

प्रकृति ने प्रजातियाँ बनाने में कोई भेदभाव नहीं किया , प्रकृति के लिए एक चींटी, एक बैक्टीरिया , एक टिड्डा , या एक इंसान , सब बराबर महत्व रखते हैं।  आप बाकी प्रजातियों से बेहतर है और उनका शोषण कर सकते है ये आपको आपके धर्मों ने सिखाया है, इसलिए वो सब कूड़ेदानों में फेंके जाने चाहिए।  

मुझे याद है जब जब मैंने ये सोचा की मैं किस तरह की महिला से विवाह करना चाहूंगा , तब तब केवल स्वयं से यही उत्तर मिला की उसमे कोई और गुण हो न हो , उसका शाकाहारी होना परमावश्यक होगा। संभवतः मेरे जीवन की सबसे बड़ी ग्लानि वो दिन हो जब मेरी संताने मांसाहारी हो जाए. ये मेरा स्वार्थ प्रतीत हो सकता है, किन्तु मेरे कुल को शाकाहारी संस्कार देने के लिए , एक शाकाहारी महिला ही सही जोड़ा हो सकती थी ।

मैंने प्रेम विवाह किया,  और अपने विवाह पर सबसे अधिक गर्वित मैं ये सोच के होता है हूँ की पत्नी जी स्वयं शाकाहारी हैं और वही संस्कार वो सन्तानो को देने को इच्छुक हैं.

चूँकि मैं धर्म विरोधी हूँ , स्पष्ट्तः किसी भी तरह की जाती , वर्ण, रंग, आर्थिक स्तिथि इन सब के आधार पे भेदभाव के भी स्पष्ट विरोध में हूँ।  मैंने एक  हिन्दू  ब्राह्मण परिवार में जन्म अवश्य लिया किन्तु अगर मौका मिले तो जाति  व्यवस्था जैसे कुचक्र को अभी के अभी विघटित  कर डालूं।  इस व्यवस्था ने इस राष्ट्र  संकल्पना की जड़ में तेज़ाबी अम्ल डालने का काम किया है। 

मैं लोगों को केवल दो ही दृष्टि से देखता हूँ , एक वो जो शाकाहारी हैं, और एक वो जो  शाकाहारी नहीं है। संभवतः मांसाहारियों को कुछ असामान्य  लगे किन्तु मैं मांसाहारियों को थोड़ा कम मानव मानता हूँ। अपने स्वाद के लिए, एक जीव के जीवन को समाप्त  कर देना  मानवता तो नहीं हो सकती।  इंसान जानवर अवस्था से विकसित हो मानव बना , किन्तु आज के मानव का माँसाहारी होना ये सिद्ध करता है की  सभी लोग बराबर विकसित नहीं हुए , कइयों में वो जानवरपन बाकी रह गया।  

मेरे लिए एक शाकाहारी भिखारी उस करोड़पति से हमेशा ज्यादा महान रहेगा जो १००० लोगों का घर चलाता हो किन्तु माँसाहारी हो।  पैसा , विशेष प्रतिभाएं हमें मानव नहीं बनाती हैं , हम मानव उस दिन बने जब हमने क्रूरता पे नियन्त्र किया , प्रेम किया साथी  मानवों से , प्रकृति से , स्वार्थ भाव को  त्यागा।  मांसहार , मानवता के हर उस प्रतीक के विरुद्ध है जो हमें मानव बनती है। 

मैं उस घर में या होटल में खाना खाना बिलकुल पसंद नहीं करूँगा जिस जगह के बरतनों  में लाशें उबाली जाती हों , उन लोगों को मित्र नहीं बनाना चाहूँगा जो लाशें के चटकारे लेकर मुझ से हाथ मिलायें। उन लोगों को कैसे सामान्य मानूं , जो जीवों को अण्डों से निकलने से पहले ही खौलते तेल में डालकर खा जाना चाहें। ये भूख़ का प्रकार नहीं, मानसिक विकृति है। क्या फर्क पड़ता है आपकी परवरिश किसी भी परिवार में हुई हो , अगर आप अभी भी संवेदनहीन हैं की आपके खाने के लिए जानवरो का बेरहमी से गला कट रहा है , तो आपको खुद को इंसान कहने का अधिकार नहीं है ।  ये विषय  खाने के आदतों तक सिमित नहीं है , अगर आपको जीव हत्या कचोटती नहीं है , उसका संताप नहीं होता ,  तो आपको खुद को इंसान कहने का अधिकार नहीं है । 

उस मृत जानवर की संवेदनाये भी अपने बच्चो से जुडी होती है जैसे आपकी अपने  बच्चों से, उस संवेदना की उपेक्षा तभी  हो सकती है , जब आप खुद पूर्ण इंसान विकसित न हो पाएं हो , और खुद थोड़े जानवर हों। 

कोई बेवकूफ अगर ये कहे की शाकाहारियों का विकास ढंग से नहीं होता तो बता दूँ, की इन्ही भारतीय जीन लेके  मैं कुछ ६ फुट १ इंच का हुआ , ९० किलो का हुआ , ठीक ठाक ज्ञान प्राप्त किया , और औसत से कुछ बेहतर खुद को कहने में क्षण भर का संकोच नहीं है।   

मुझे किसी को  मांसहार के शारीरिक नुक्सान बताकर , हमारे दांतो की बनावट या अन्तः अंगो के  स्वरुप का हवाल देके कोई तर्क करना ही नहीं है ,  मेरा तर्क सिर्फ और सिर्फ संवेदनहीनता है, अगर कोई भी छोटा या बड़ा जीव इसलिए मारा जाए क्योंकि आपको खाना है , तो आप मेरे लिए थोड़े कम ही इंसान हैं. 

न चाहते हुए भी मानना पड़ता है की हम अलग हैं, हमारी विकास अवस्था अलग है. कोई अफ्रीका में हो या ऑस्ट्रेलिया में, शूद्र हो क्षत्रिय हो  या आदिवासी , ईसाई हो या बौद्ध।  अगर शाकाहारी है तो वो क्रमिक विकास की अवस्था में ऊपर है। मांसहारी, भले ही बनारस में हो या वाशिंगटन में , ब्राह्मण हो या मुस्लिम , आपका विकास होना शेष है , मानव को प्रकृति से मिला सबसे बड़ा पुरूस्कार , संवेदनशीलता आपमें आना अभी बाकी है।  

और जब तक आप उस स्तर तक विकसित नहीं होंगे , हम आपको बराबर  कैसे मान लें।  सबको बराबर मानना आधुनिक मानव मूल्यों का अपमान होगा. 

शाकाहारियों को ये दायित्व लेना चाहिए की वो  अविकसितो मानवो को बारबार ये एहसास दिलाये की वो अभी  मानव नहीं बने हैं , ये कचोटना ही एक प्रेरणा बन सकता है सारे समाज के एकसार उथान के लिए.

शाकाहारियों का यही धर्म होना चाहिए। 

अंततः 

जैसे मांसहारियों को जीव हत्या  का दर्द नहीं होता, मुझे भी उनकी मृत्यु पे थोड़ा कम ही शोक होता है.

#Anupamism 

Anupam S Shlok