जब मैं छोटा था तो मैं "शर्मा जी" का लड़का था, मैं ही नही बगल वाले डॉक्टर अंकल , पंडित जी के लड़के थे। सीमा आंटी जो ब्यूटी पार्लर चलाती थी उनका नाम सीमा भी अभी कुछ साल पहले पता चला वरना वो हमेशा से बरेली वाले गुप्ता अंकल की बहू थीं।
कहने का मतलब, हमारी पहचान हमारे माता- पिता से की जाती थी, भले ही उम्र कुछ भी हो जाये।
अब मैं नोएडा के एक फ्लैट में रहने वाला एक HR हूँ। मेरे सामने वाले घर मे एक चार्टर्ड अकाउंटेंट रहता है। नीचे दूध लेने जाता हूँ तो Genpact वाले मार्केटिंग मैनेजर से रोज़ मुलाकात होती है। वो मेरा इकलौता दोस्त है आफिस के लोगों के अलावा। नाम उसका शायद दिनेश है या सुरेश अभी ढंग से याद नहीं आ रहा।
अब ये हमारी पहचान है, हमारा "प्रोफेशन", इसके अलावा हम कुछ भी तो नहीं।
हम बचपन मे गलती करते थे तो मोहल्ले का कोई भी चाचा, बुआ, ताऊ, दादा गाल पे चपत धर देता था, और मम्मी भी कहती थी " हाँ भाई साब सही किया आपने, बहुत बिगड़ रहा है" । आजकल खुद के बच्चों को हाथ लगाने की हिम्मत कहाँ हो पाती है जी।
अब कौन जाने कौनसा दौर बेहतर है, पर हाँ लगता तो है की मानो समय न बदला हो, दुनिया ही "Replace" हो गयी है।
Anupam S Shlok
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