उस सहवासीय प्रक्रिया को और अतुल्य बना रहा था , प्रनाली का कामसूत्रीय ज्ञान। मानो सिर्फ उसी न सीखा हो कोकशास्त्र के हर पाठ का सटीक क्रियान्वयन। कितना बौना महसूस कर रहा था उसके समक्ष मैं , मानो अम्लत्ताश को गुलाब की ख़ुश्बू आ जाये और हर एक पत्ता पेड़ से टूटकर , इच्छा मृत्य स्वीकार कर ले। उसे पुरुष शरीर के हर एक उस बिंदु का पता था , जहाँ छूने भर से पुरुष को एक ऐसा बन्दर बनाया जाया सकता था जिसे मदारी पलकों के इशारे पे नचा सकता हो.… प्रनाली वो मदारी ही थी और मैं उसका बन्दर , बन्दर अप्रिय न लगे अतः प्रनाली का जमूरा तो मैं बन ही चुका था ।
"तो मुझसे मेरी कहानी नहीं पूछोगे ? "प्रनाली ने उस कामाग्नि के थोड़ा शीतल होने पे मुझसे पूछा। "हम जैसियों से इसलिए तो मिलते हो न तुम ". मैं स्तब्धता के साथ ही आकलन करने लगा की क्या कहना चाहती थी वो। 'तो तुम जानती हो मुझे ", सिर्फ यही कह पाया था मैं। 'हाँ.…जानती हूँ मैं तुम्हे , तुम्हारे लिए रंडियाँ एक कहानी हैं बस। एक कहानी जो तुम हर बार , बार बार पड़ते हो.… हालंकि उस कहानी का अंत , शुरुआत , हर परिच्छेद, हर पंक्ति , हर शब्द पहले से जानते हो तुम। बस हर बार चरित्रों के नाम बदल जाते हैं। हैं न ????" मेरे मुंह से शब्द निकल रहे थे पर मष्तिष्क प्रनाली के हर शब्द के आकलन में जुटा था , " नहीं गलत हो तुम मेरे लिए कहानी नहीं है , मैं उस दर्द को महसूस करना चाहता हूँ , जुड़ना चाहता हूँ , समझना चाहता हूँ , जो मार डालता है स्त्री के अंदर की स्त्री को। "
"दर्द my foot".. एक पुरुष स्त्री को नहीं समझ सकता कभी , क्योंकि उसकी औकात ही नहीं होती। तुम केवल वो सुनना चाहते हो , समझना चाहते हो , जो बहुत obvious हो। By the way , मेरे बारे में क्या सोचते हो , क्या है मेरी कहानी ?" आखिरी पंक्ति बोलते समय एक रहस्मयी मुस्कान देखी थी प्रनाली की आँखों में मैने। " वैसी ही है न तुम्हारी कहानी जैसी सबकी होती है , बस कुछ चरित्रों के नाम अलग होंगे। या शायद कुछ ज्यादा सहा हो तुमने ज़िन्दगी को , शायद बाकी सबसे थोड़ा ज्यादा। है न ?" बड़ी विश्वश्ता से पूछ बैठा था मैं। प्रश्न सुन ६-७ क्षण प्रनाली शांत थी उसकी आँखें सीधे मेरी आँखों में देख रही थी , चेहरे पर कोई भी भूला -भटका भी भाव नहीं था। मुझे लगा था अब प्रनाली की आँखों से आंसू टपकने लगेंगे ,और फिर उन आंसूओं से भीगी कहानी प्रनाली को विषाद में ले जायेगी। पर उस ६-७ क्षण के बाद प्रनाली ने मेरे सारे कयासों को धता बता दिया। उसने बड़ी जोर का ठहाका लगाया था मुझ पे , मानो मेरा प्रश्न बुद्धिजीवी न होकर बालसुलभ हो। मानो एक बालक अपनी माँ से पूछ बैठा हो , माँ अगली गर्मिओं के छुट्टीओं में "चंदा मामा " के यहाँ चले क्या ? या यूँ कहें , मैं कोई बेवकूफ था , और मुझे सारी दुनिया के सामने लज़्ज़ित करने के लिए मुझ पे हँसा जा रहा था। इतना शर्मिंदा खुद को नहीं पाया था मैंने कभी। एक वस्त्रहीन रंडी ने भाँड बना डाला था मुझे।
"ठीक है सुनाती हूँ मैं अपनी कहानी , शायद तुम्हे उतनी दिलचस्प न लगे, पर सिर्फ सच होगी", ठहाकों को रोकते हुए प्रनाली ने कहा मुझसे।
अपनी निर्वस्त्रता छुपाने के लिए , पलंग की चादर खींच के मैं लकड़ी की कुर्सी पर बैठ गया।और प्रनाली मेरे बिलकुल सामने पलंग पे बैठी थी उन्ही कपड़ो में जिनमे उसकी माँ ने उसे इस दुनिआ में धकेला था। पहली बार प्रनाली की उन आँखों में मैंने कुछ संवेदनाएं देखीं जो शायद अतीत को कहानी की शक्ल देने के प्रयास में लगीं थी। प्रनाली चिरपरिचित अंदाज़ में थोड़ा सा मुस्कुराकर बोली, "समझ नहीं आ रहा कहाँ से शुरू करूँ …OK...चलो शुरू से ही शुरू करती हूँ". मैं तैयार था प्रनाली को चिरकाल तक सुनने के लिए।
"मेरा बचपन मेरे पिता के साथ कोलकता में गुजरा,मेरी माँ मुझे जन्म देते वक़्त गुज़र गयी थी।पापा की जान थी मैं,पापा ने कभी माँ की कमी महसूस नहीं होने दी। पापा , मम्मी से बहुत प्यार करते थे, इसलिए उन्होंने दुबारा शादी भी नहीं की थी।हमारे दो कारखाने थे, जहाँ स्टील के ढाँचे बनते थे.एक बड़ा सा घर था , जिसमे ७-८ कमरे थे,जो मेरे और पापा के लिए जरुरत से ज्यादा थे।कमरों के आगे आँगन था और आँगन से थोड़ा हटके 1 कमरा था जहाँ हमारा ड्राइवर अमृत्य और उसकी पत्नी रंजिनी रहते थे। रंजिनी तब २४ की रही होगी और अमृत्य ३१ का। घर की और मेरी देखभाल रंजिनी ही करती थी। और बाहर के सारे काम अमृत्य किया करता था।रंजिनी जिसे मैं प्यार से रंजू कहा करती थी ,दिनभर मुझे अपने और अमृत्य के प्यार के किस्से सुनाती थी।अमृत्य,रंजू को भगा के लाया था,और दोनों को एक बार देखते ही कोई भी कह सकता था की दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं.
वो बरसात की एक रात थी , मैं १३ साल की रही होउंगी तब। रंजिनी मेरे साथ ही सोयी थी , अमृत्य को पापा ने किसी कारखाने के काम से लखनऊ भेजा था। रंजिनी मेरे पास ही सो जाया करती थी जब भी अमृत्य को बाहर जाना पड़ता था। रात को २ बजे के आसपास मेरी नींद खुली , रंजिनी वहां नहीं थी। मैं बाथरूम जाने के लिए कमरे से निकली, रंजिनी कहीं भी नहीं थी। और तब वो हुआ जो शायद न हुआ तो मैं आज कुछ और होती। मैंने रंजिनी के कराहने की आवाज़ सुनी , शायद वो रो रही थी।आवाज़ पापा के कमरे से आ रही थी। दरवाज़ा बंद था , और जैसे जैसे मैं कमरे के नज़दीक पहुंची वो कराहना बढ़ता चला गया। मैंने कुण्डी वाली जगह से अंदर झाँका, और कुछ ऐसा होता हुआ देखा जो पहले नहीं देखा था।हाँ मैंने पहली बार "SEX" देखा था। रंजिनी , पापा के नीचे थी , दोनों बिना कपड़ो के थे. रंजिनी की दोनों टाँगे खुली थी और उनके बीच पापा थे।पापा के हाथ रंजिनी को नोच रहे थे, पर रंजिनी का कराहना दर्द के कारण नहीं था। वो कारण उस दिन मुझे समझ नहीं आया था। मुझे समझ ये भी भी नहीं आ रहा था ,की मैं अब क्या करूँ। मैं अगले आधे घंटे वहीँ खड़ी रही , तब तक , जब तक वो सब खत्म नहीं हुआ। मैंने पहली बार किसी मर्द और औरत को बिना कपड़ो के देखा था। मुझे पता नहीं था की मुझे क्या महसूस करना चाहिए. मैं रंजिनी के वपिस आने से पहले वपिस आके बिस्तर पे आँखें बंद करके लेट गयी.रंजिनी 15 मिनट बाद दबे पांव वपिस आयी,और आते ही सो गयी.
मैं एक पल में बड़ी हो गयी थी ,कुछ दिन तक हर क्षण मेरे सामने केवल वो ही दृश्य रहे. जागते,सोते,ख्वाब में हर वक्त वही दृश्य .मेरे दिल में हर बीतते दिन के साथ अपने पिता से नफरत बढ रही थी, वो आदमी हर दिन रंजिनी को अपनी हवस का शिकार बना रहा था. रंजिनी को सब कुछ सहते हुए भी हर पल मुस्कुरना पड़ता था. जैसे कुछ हुआ ही ना हो. मुझे कुछ करना था , कुछ ऐसा जो मेरे पिता को एहसास दिलाये कि वो ग़लत कर रहे हैं. कुछ ऐसा जो रंजिनी को न्याय दिलाये. पापा का सामना करने कि हिम्मत नही थी मुझमें,ना ही रंजिनी से बात करने कि. और क़रीब 8 महीने अपने मन में जलने के बाद मैंने एक निर्णय लिया . मुझे नही पता वो सही था या ग़लत पर वो मेरा ख़ुद का निर्णय था , और उसका असर जो भी हुआ उसकी जिम्मेदार में ख़ुद थी .मैंने निर्णय लिया कि पापा को भी वोही झेलना होगा , जो मैं झेल रही थी. मैंने अमृत्य के साथ "वो" करने का निश्चय लिया जो वो रंजिनी के साथ कर रहे थे.