Tuesday, December 3, 2013

अविषा (28 Sep 2009)

एक ख्वाब जो अधूरा - अधूरा सा,
ख्वाब जो जागती आँखों के पास से होकर गुजरा;
एक ख्वाब जो इतना अधूरा था,
जितनी मेरी जीने की चाह अधूरी ,
अविषा ने मेरे कानो के पास कुछ बुदबुदाया ;
और वो ख्वाब और अधूरा हो गया;
उतना ही अधूरा , जितनी अविषा की वो बात अधूरी।

उसने कुछ कहना चाहा, पर उसे उस वक्त ने रोक लिया,
कभी बात अधूरी , कभी हालत अधूरे,
एक शंख सा कानो में गूंजा , और वो गूँज और गहरे में उतर गई ,
अविषा ने उस गूँज को मखमली बना दिया,
और वो अधूरी गूँज , और अधूरी हो गई;

उस सिहरन का कोई नाम न था,
शायद नाम होता तो वो और अधूरी हो जाती ,
अविषा बोली , और बोली , बस बोलती चली गई ;
उसने नही रुकना था , सो नही रुकी,
मैंने चाहा उसे रोकूँ , पर क्योंकर रोकूँ ,
कभी अल्फाज़ अधूरे , कभी हर शब्द अधूरा।

एक खुश्बू , जी गीली मिटटी सी मीठी , सागर सी गहरी,
एक तितली , इन्द्रधनुष सी प्यारी , रौशनी सी सुनहरी ,
अविषा रुकी पर फिर से बोलने के लिए ,
उसके शब्दों के साथ पानी के दो छींठे ;
छींठे जो मेरे दायें हाथ की कलाई पर पड़े ,
मैंने अविषा को देखा , उसने मुझे ;
और बिना कुछ बोले , दोनों मुस्कुरा दिए;
शब्द अधूरे ....अर्थ अधूरे...ख्वाब अधूरे... ।



Anupam S Shlok
28-Sep-2009
08447757188
www.anupamism.blogspot.com

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