Wednesday, December 18, 2013

कहाँ गया पाप ??? (29 - 10 - 2004)

मेरा नाम अनुपम है तो सोचा न, क्यों न नामनुसार कुछ अनुपम कार्य किया जाए ,
कुछ  ख़ास तो करने को है नहीं  ख़ाली समय में  कुछ खोज  कि जाए. 
तो यही सोच ,  सोचने लगा कोई प्रश्न , जो अनुत्तरित हो असोचा हो ;
सोचता रहा आखिर क्या अनुत्तरित है अब तक जग में ?

७२ घंटो के बाद दो  प्रश्न सामने थे?
प्रथम , आखिर मानव मृत्य पश्चात कहाँ जाता है ?
ईश्वर को प्राप्त करता है , या मिट्टी  में मिल जाता है ?
दूसरा , आखिर सदियों से करोडो मानवो ने गंगा में अपने पाप धोये ,
लेकिन सारा पाप गया कहाँ??

प्रथम उत्तर प्राप्त करने हेतु मरना जरुरी था ,
अतः दूसरे को प्रथम मानकर जा पहुंचा हरिद्वार।

कुछ भैंसे किनारे पर नहा रही थीं ,
कुछ स्त्रियाँ दीपक बहा रही थीं। 
कुछ "फ़ूल" जो तैर रहे थे ,
और कुछ "फूल" जो डूब जाने थे।  
ऐसा था कुछ गंगा का हाल। 

ऐसी स्थिति को अनदेखा कर पुकारा… 
" हे गंगे प्रकट हो !!"
आश्चर्य ! प्रथम पुकार में ही गंगा समक्ष थी.
मैंने कुछ क्षण अपलक देखा फिर पूछा।  

"हे गंगे मैं कोई पुण्यात्मा नहीं ,फिर इतनी शीघ्र  क्यों  दर्शन दिए  ?"
उत्तर मिला " पुत्र हज़ारों वर्ष बीत  गए, कोई  कहता है ,
धन दो , कोई कहता है संतान दो;
पर कोई भी प्रकट होने को नहीं कहता ,
तुमने कहा तो मैं खुद को रोक नहीं पायी। "
"बोलो तुम्हारा  स्वार्थ क्या है "?

मैं बोला "माता मैं दुविधा में स्वयं को पाता हूँ,
अथक प्रयासों बाद भी एक उत्तर नहीं पाता हूँ

आखिर तुमसे ही पूछने चला आया हूँ , कृपया उत्तर दो।

बताओ "सदियां बीती ,  बीते युग भी , बीते कल्प हज़ार ,
किन्तु रहा ये प्रश्न अनुत्तरित ,  अनुपम सदाबहार  .

"पापी भीष्म था, पापी भीम भी ,
पापी दुर्योधन और कर्ण ,
पापी कुंती  और द्रौपदी ,
पापी कहीं कृष्ण का प्रण ,
पापी साधु , मुनि , ऋषि ,
और पापी राजा प्रत्येक ;
पापी लालू, पापी सोनिया ;
अडवाणी अटल समेत ;
पापी मैं और तुम भी हो,
फिर कौन रहा है बाकी ,
किन्तु एक बात समझ न आती ;
तुझमें जो नहा गया ,
वो पा गया पापों से मुक्ति,
चाहे हो कोई ईश पुजारी ,
या न जाने वो भक्ति ,
फिर भी आते हैं , नहाते हैं ,
और अपना पाप छोड़ जाते हैं ,
तो बताओ…

जब लाखों नहा गए , तो पाप समतुल्य ही होगा
खरबो न हो , अरबों में ही , टनों पाप तो होगा ;
किन्तु आज भी लोग आते हैं ,
नहाते हैं , और पाप छोड़ जाते हैं ;
तो बताओ , इतना पाप गया कहाँ ??"

गंगे हंसी और बोली ,
"बेटा प्रश्न तेरा महान है ,
पर मैं असमर्थ बताने में,
लोग लगे थे नहाने में
और मैं आगे सरकाने में ;

अर्थात "मैं एक ओर से पाप लेती हूँ ,
और दूसरी और से समुद्र को दे देती हूँ ;
अतः ये प्रश्न समुद्र से पूछो कि ,कहाँ गया वो पाप ?
वही संचित स्थल का नाम बता पायेगा ,
और साथ ही मुझे भी सूचित करवाएगा ;

तो  मैं पहुंचा सिंधु समीप , लेकर प्रश्न विकराल ,
दी आवाज़ प्रकट हो सागर , तू वृहद् , दीर्घ , विशाल                                        
शीघ्र समक्ष सागर को पाकर , प्रश्न शीघ्र ही पूछा
सुना प्रश्न को , सोच विचारा , किया शीश को नीचा ;

वो बोला , " शर्मसार हूँ मैं , उत्तर मुझको भी न आता ,
जो पाप गंगे से मिलता , मैं भी आगे सरकाता ,
मैं तो जल के साथ पाप भी सूरज को पकड़ाता  हूँ ,
वाष्पीकृत रूप में ही , मैं पाप आगे ले जाता हूँ ;
अतः प्रश्न सूरज से पूछो , कहाँ गया वो पाप `
और  यदि उत्तर पाते हो , परम पूज्य हो आप ;


ले विदा  पुकारा सूरज को , वो प्रकट हुआ अतिशीघ्र,
बोला क्या चिंता औ इच्छा , हे मानव श्रेष्ठ अतिवीर !
मैं बोला , अनुपम हूँ मैं , और सूर्यदेव हो आप ;
कृपया उत्तर दो हे देव , कहाँ गया वो पाप;
कहाँ गया वो पाप , जो गंगा ने थोक मे पाया ;
फिर समुन्द्र ने पाकर उससे , तुम्हें अधिपति बनाया ;


बोला सूर्य " जो दिया सिंधु ने , पाप  कलंकित काला ,
वो समस्त पाप मैंने बादल को दे डाला।
उससे ही पूछो कि कहाँ गया वो पाप ,
और कृपया उत्तर पाकर  सूचित करना आप।

तो अब लक्ष्य था , बादल का घर , पहुंचा फिर उससे पूछा ,
तुम श्रेष्ठ  दानी बादल हो , धरती को तुमने सींचा ;
किन्तु चाहूं  एक प्रश्न पूछना , उत्तर देना आप ,
जो सूरज ने तुम्हें दिया था , कहाँ गया वो पाप;

हो गम्भीर , बादल बोला , "हे अनुपम , लाओ कान ",
धन्य हो तुम कि पूछा तुमने ,ये प्रश्न है अति महान।
जो पाप सूर्य से मिलता है , उसे पानी में मिलवाता हूँ ,
उस जल मिश्रित पाप को मैं धरती वापिस भिजवाता हूँ।
जिसका जितना होता है, उसको वापिस कर देता हूँ ,
और नए पाप का ढेर सूर्यदेव से लेता हूँ।

मानव गंगा में देता है , सिंधु गंगे से पाता है,
फिर सूर्य उस पाप को ले चक्र आगे बढ़ाता है। 
मैं सूरज से लेकर उसको वर्षा जल में मिलवाता हूँ। 
जिसका जितना होता है उसको वापिस करता जाता हूँ।  

उत्तर पाकर मैं लौट चला, जो पाना था वो पाया ,
सूचित करके देवजनों को मानव को भी  बतलाया ;
किन्तु मानव है "श्रेष्ठ", अतः उसने कहा न माना ;
इस आपबीती घटना को उसने कविता मात्र ही माना।

अब भी लोग जीते हैं , पाप करते हैं , और हरिद्वार जाते हैं ,
और ये सोच गंगा में नहाते हैं ,
कि गंगा में नहाने से सारे पाप धुल जाते हैं 




अनुपम S. "श्लोक"
anupamism@gmail.com

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